भारतीय संस्कृति में प्रकृति को अत्यधिक महत्व दिया गया है, समस्त प्रकृति को जीवनदायी माना गया है। यह केवल भावनात्मक तथ्य नहीं है बल्कि हमारे महान ऋषि मुनियों के द्वारा आंकलन किये हुए वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। इन्ही वैज्ञानिक तथ्यों को पूजा पद्वति से जोड़ कर पारम्परिक स्वरुप दिया गया जिसे साधारण मनुष्य सरलता से ग्रहण कर सके। सदियों से हमारे पूर्वज इन पूजा पद्वतियों का निर्वाह करते हुए प्रकृति का संरक्षण करते रहे और स्वस्थ पर्यावरण का लाभ उठाते हुए उच्च कोटि का जीवन व्यतीत करते रहे। किन्तु जैसे-जैसे मनुष्य विकास मार्ग पर अग्रसर हुआ प्रकृति का विनाश करता चला गया। आज हम परम्पराओं का निर्वाह तो कर रहे हैं, किन्तु उसके पीछे का विज्ञान भूल गए हैं। जीवन देने वाली प्रकृति का विनाश कर रहे हैं, माँ गंगा की अमृत धारा आज कचरे का ढेर बन गयी है, नीम पीपल बरगद जैसे बहुपयोगी वृक्ष लुप्त हो गए हैं, वायु ज़हरीली हो गयी है, पृथ्वी की उर्वरा शक्ति क्षीण हो गयी है, पर्यावरण का विनाश हो रहा है और मनुष्य का भविष्य अंधकारमय है।
यदि हम गौर करें तो पाएंगे की कोविद-१९ महामारी के कारण होने वाली अतिकाधिक मृत्युओं का कारण भी हमारा कमजोर स्वास्थय ही है। हमारी जीवन शैली इस प्रकार की हो गयी है, कि न तो हमें अपने स्वास्थ्य का ध्यान है और न ही प्रकृति के स्वास्थ्य का, फल स्वरुप एक असंतुलन कि स्थिति पैदा हो गयी है। आज हम और हमारा वातावरण दोनों ही कमजोर कड़ी बन गए हैं, इसी कारण एक स्वस्थ जीवन चक्र समाज से लुप्तप्राय सा लगता है। अत्यधिक तनाव, आगे बढ़ने कि लालसा, गलत भोजन, गतिहीन दिनचर्या के कारण आज लगभग प्रत्येक व्यक्ति अनेकों रोगों से ग्रसित है, और जब कोरोना वायरस ने उनके रोगग्रसित शरीर पर आक्रमण किया तो वह इसको झेल नहीं पाए। दूसरी ओर ये देखा गया कि जिन लोगों में पहले से कोई रोग नहीं था, वह कोरोना संक्रमण के बाद जल्दी ही स्वस्थ हो गए। हालाँकि पिछले कई वर्षों से स्वास्थ्य ओर प्रकृति के मध्य तालमेल बनाये रखने को लेकर संवाद होता रहा है, किन्तु अब समय है कि हमें संवाद से निकलकर क्रिया कि ओर कदम बढ़ाना चाहिए।
कोरोना आपदा का एक और रूप हमने देखा, जहाँ मानवजाति पर घर से बाहर निकलने पर प्रतिबन्ध लगते ही प्रकृति ने अपने को सँवारने का अवसर पाया और अपने बाकि जीव जंतुओं को भी फिर से स्वछन्द व् उन्मुक्त जीते हुए देखा। हमारी जीवन दायनी माँ गंगा जिसे हम कई सालों के अथक प्रयासों के बाद भी स्वच्छ एवं निर्मल नहीं बना पाए वो मानव विचरण पर लगाम लगते ही स्वतः निर्मल हो गयी। तो क्या इसका अभिप्राय यह है कि मानव को सदैव के लिए घर में बंद हो जाना चाहिए? नहीं अपितु इसका अभिप्राय यह है कि हमें अपने जीवन जीने के तरीकों और प्राकतिक संसाधनों को उपयोग करने के अपने तरीकों में बड़े बदलाव लाने चाहिए। इसी बात को एक कविता के रूप में इस प्रकार वर्णित किया है:
निर्मल जलधारा के साथ हमने एक और उल्लेखनीय परिवर्तन को अनुभव किया, वह था वायु कि गुणवत्ता में अत्यधिक सुधार। हालाँकि हम कल कारखानों, निर्माणकार्यों या वाहनों के उपयोग को सदा के लिए बंद नहीं कर सकते, किन्तु ऑक्सीजन देने वाले वृक्षों के रोपण तो कर सकते हैं। ऐसे ही एक वृक्ष का वर्णन हमारे ग्रंथों में किया गया है और हज़ारों वर्षों से भारतीय संस्कृति में इसे बहुत महत्व दिया गया है, यह है “वटवृक्ष” जिसे “कल्पवृक्ष” भी कहा गया है। वट या बरगद का वृक्ष कई सदियों तक जीवित रहता है, एक व्यक्ति वट वृक्ष को रोपित करता है तो उसकी आने वाली कई पीढ़ियों को इस वृक्ष का लाभ होता है। इस वृक्ष कि एक विशेषता यह है कि इसमें फोटोसिंथेसिस के साथ ही क्रसुलेसियन एसिड चयापचय कि क्रिया होती है जिसके कारण यह दिन के साथ-साथ रात्रि में भी ऑक्सीजन का उत्सर्जन करता है। भारत में आज भी सदियों पुराने वटवृक्ष हैं, ओर यह जानकर विस्मय होगा की विश्व के तीन सबसे बड़े वटवृक्ष जोकि गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ड रिकॉर्ड में दर्ज़ हैं वह भी भारत में ही हैं। इनका विवरण कुछ इस प्रकार है :
कोरोना काल ने जहाँ हमारे जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया, वहीं हमें प्रकृति के साथ सही तालमेल बनाकर स्वस्थ जीवन शैली को अपनाने के लिए गंभीरता से विचार करने के लिए विवश किया है। समय रहते मनुष्य को अपनी भूल सुधार करते हुए पर्यावरण संरक्षण को गंभीरता से लेना होगा, यदि यह विनाशलीला यूँ ही चलती रही तो जीवन का अंत निश्चित है। हमें अपनी परम्पराओं में छुपे वैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार करते हुए स्वस्थ पर्यावरण के मानकों को फिर से स्थापित करना होगा और संतुलित विकास को मान्यता देनी होगी। आज के भौतिकवादी युग में निजी स्वार्थ से हटकर प्रकृति के प्रति भावनात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा जिससे स्वस्थ पर्यावरण और स्वस्थ जीवन का चक्र सुचारु रूप से चलता रहे।
डॉ. अनु सिंह, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, दिल्ली
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